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अनुभूति में राजीव कुमार श्रीवास्तव
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सपने

मेरे सपने
जो शायद ही हैं मेरे अपने
नींद में तो कभी पास नहीं आते हैं।.
जागने पर अक्सर मुझे सताते हैं।
आँखों को चुभते ये सपने,
दिल में एक टीस सी जगाते हैं।
लाख हँसने की कोशिश करूँ,
पर ये मुझे सदा रूलाते हैं।
इन सपनों के पीछे भागते हुए
मेरा अस्तित्व भी खो रहा है।
मष्तिष्क किसी मृगतृष्णा से व्याकुल है,
और पीड़ित हृदय रो रहा है।
शायद ये पराए सपने हैं,
जिन्हें अकारण मैंनें अपनाया है।
अनंत के पीछे भागता हुआ,
स्वयं को इनसे बँधा पाया है।
इस भँवर से निकलने के लिए 
अब किसी सहारे की आस है।
इन सपनों को भी शायद
थोड़ी जमीन की तालाश है।

२४ अप्रैल २००३

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