अस्तित्व
एक हरा भरा पत्ता
जो कभी
ओंस की बूँदो के संग नहाता था
टहनी से चिपका
ठंडी हवाओं के संग
अठखेलियाँ किया करता था
तेज़ धूप को
अपने आँचल मे समेटकर
राहगीर को ठंडी छाँव देता था
तो कभी बूँदे गिरा-गिराकर
उन्हें परेशान किया करता था
ये सारे उसके जीवन के बसंती क्षण थे
जिन्हे वो हँस-हँसकर जिया करता था
कल क्या होगा. . .? कल कहाँ होगा. . .?
इन प्रश्नों से बेख़बर रहा करता था
मगर जिस डाली के सहारे
वो इतना इतराया करता था
एक दिन उसी ने नाता तोड़ लिया
भरी दुनियाँ मे 'अकेला' छोड़ दिया
पत्ता बेचारा कुछ समझ ना पाया
क्या हुआ. . .? कैसे हुआ. . .?
इन सवालों मे उलझ गया
पड़ा रहा वहीं, उसी पौधे के पैरों में
बेसहारा समझकर खुद को
सहारे को तरसता रहा
मगर कुछ दिनों बाद
जब आँसू भी सूख गए,
खुद भी सूख गया
एक हवा का झोंका आया
और वो भी संग बह गया
कुछ दिनों तक भटकता रहा
यों ही इधर-उधर
बेरुख़ी हवा के संग बहता रहा
फिर एक दिन उसने सोचा
उसका अपना अस्तित्व क्या है. . .?
उसका अपना वजूद क्या है. . .?
और निश्चय कर लिया
अब नहीं भटकेगा
इधर-उधर
डटकर खड़ा हो गया
अंगद की तरह
आज वो पेड़ बन चूका हैं
उसकी डालियों पर कुछ हरे-भरे पत्ते
उसी तरह अठखेलियाँ करते हैं
जैसे वो किया करता था
मगर अब वो कर रहा है. . .इंतज़ार
उस क्षण का
जब वो भेजेगा
अपने जिगर के टुकड़ों को
अपने से दूर अस्तित्व की तलाश में
क्योंकि अब वो जान चुका है. . .
अपने पैरों पर खड़े होने का मतलब क्या है?
9 मार्च 2007
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