अनुभूति में अर्चना
श्रीवास्तव की
रचनाएँ-
स्वीकारोक्ति
प्रकृति के संग- (एक)
प्रकृति के संग- (दो)
हकीकत
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स्वीकारोक्ति
हाँ! मोटी हो गई है मेरी खाल
बेहद सख़्त और रूखी
नहीं होता है इस पर असर
किसी शब्द की ललकार का
किसी एहसास के चित्कार का
या फिर हार का
आँखों पर टँका था
नीली लहरों का समंदर
श्वेत नर्म बादलों का चुहल
साँसों में भरा था
हरे लहलहाते
खेतों की मधुर तान
अंतर में बसा था
झिलमिलाते जुगनुओं के
नित्य नये उत्सव
दमकते लाल-पिले फूलों की
मखमली बारिश
मगर मैंने
छुटती दम तक पाया था
सत्य का चेहरा
कई तहों में दबा हुआ
जैसे शराफों की खामोशी में
कायरों की फौज
मतलबी की आँधी में
जज़्बातों की मौत
इत्मिनान की एक चाल पर
हज़ार जालसाज़ों का पहरा
जो अपनी आवाज़ नहीं जानते
वो नारों से जुड़ गए
जो अपनी आवाज़ ढूँढ़ते थे
वो मुलायम इश्तिहारों में डूब गए
अपने हथियार जो व्यवस्था के विरुद्ध थे
वो साँसों की लय
लहू के रंग
आसमा के कोने
और धरती के एक टुकड़े की
महज़ ढाल बन गए।
११ मई २००९ |