अनुभूति में अर्चना
श्रीवास्तव की
रचनाएँ-
स्वीकारोक्ति
प्रकृति के संग- (एक)
प्रकृति के संग- (दो)
हकीकत
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प्रकृति के संग -
(एक)
साँय साँय घुप्प अंधेरे को चिरती
हवा की मौजों से खेलती
जाने-अनजाने असंख्य जंतुओं की
जीवंत- आदिम हलचले
निस्तःब्ध आसमाँ
रात की स्याही में डूबा
सितारों में झाँकता
ऊँचे-नीचे पहाड़ों पर बिछी
कटी-छँटी, टेढ़े-मेढ़े मोड़ों की सड़के
जंगलों में घुली हुई
दूर तक फैली संकरी तेज़ घाटियाँ
अपने भयानक सौंदर्य से लापरवाह
जैसे कोई दखल नहीं
मानवी हाथों का
उसकी लपलपाती नज़रों और
तीक्ष्ण विचारों की
और उनके बीच गुज़रती 'बस'
तेज़-धीमी, आड़ी-तिरछी
जैसे प्रकृति के अनंत में
खुद ही नज़रबंद हुआ जाय!
११ मई २००९ |