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जाने कौन-सी सीता रोई

हे धरती, तुम तो फटी!
पर सीता कहाँ समाई इसमें?
तुम्हारी दरारों ने निगल डाले
असंख्य छत-दीवारें,
रक्त रंजित बेगुनाह लाशें
कई बूढ़े जनकों ने
अपने दृगों के अश्रु डाल
अपनी झुर्रियों के अरमा निकाल
पाटे हैं तुम्हारे दरार।
कई लवो के घावों ने,
कई कुशों के पाँवों ने,
कितने अनाथ परिवारों ने,
मुँह से छीने निवालों ने
पाटे हैं तुम्हारे दरार।
हिल चुका है तुम्हारे संग
अनगिनत भविष्य
असह्य है वर्तमान।
हे धरती, तुम तो फटी!
पर तुम सीता बाँचना भूल गई।

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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