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अनुरोध

हे बादल!
अब मेरे आँचल मे तृणों की लहराई डार नहीं,
न है तुम्हारे स्वागत के लिए
ढेरों मुसकाते रंग
मेरा जिस्म
ईंट और पत्थरों के बोझ तले
दबा है।
उस तमतमाए सूरज से भागकर
जो उबलते इंसान इन छतों के नीचे पका करते हैं
तुम नहीं जानते
कि एक तुम ही हो
जिसके मृदु फुहार की आस रहती है इन्हें
बादल! तुम बरस जाना
अपनी ही बनाई कंकरीट की दुनिया से ऊबे लोग
अपनी शर्म धोने अब कहाँ जाएँ?

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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