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अस्तित्व

मुझसे वो पूछता है कि अब तुम कहाँ हो?
घर के उस कोने से
तुम्हारा निशां धुल गया
है वो आसमां वीरां, जहाँ भटका करती थी तुम।
कहाँ गया वो हुनर खुद को उड़ेलने का?
अपनी ज़िंदगी का खाँचा बना
शतरंज की गोटियाँ चलती फिरती हो
कहाँ राख भरोगी?
कहाँ भरोगी एक मुखौटा?
खा गई शीत-लहर, तुम्हारे उबाल को
अब
तुम्हें भी इशारों पर मुसकाने की आदत पड़ गई है।
तुम भी
इस नाली का कीड़ा ही रही।
भाती है जिसपर
वही अदना-सी ज़िंदगी
वही अदना-सी मौत

 

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