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अनुभूति में विजय किशोर मानव की रचनाएँ-

नए गीतों में-
खुले आम चुन लिये गए
बाँध गई मुस्कान
यात्राएँ गंगा सागर की

साज़िशों भरे दफ्तर

हँसने के दिन

गीतों में-
गाँव छोड़ा शहर आए
घुटन से भरी भरी
जलती आँखें कसी मुट्ठियाँ
पाला मारे खेत

 

 

 

पाला मारे खेत

पाला मारे खेत सुने थे
शोर अकालों के
लेकिन यहाँ काठ मारे से
शहर हो गए हैं

भरे जेठ की दरकी धरती
जैसे हैं चेहरे
अंधी फरियादों के
सुनते हैं बैठे बहरे
चर्चे अबतक बहुत सुने थे
इन्हीं उजालों के
आग लगी जिनसे, सब घर
खंडहर हो गए है

दीवारों के घेरे जीते
बूढ़े शेर हुए
भीतर लोग दहकते
बाहर से पालतू सुए
शायद हमने ढोर चुने थे
भरे पुआलों से
तभी शहर के शहर यहाँ
लाशघर हो गए हैं।

१६ अगस्त २०१०

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