अनुभूति में
विजय किशोर मानव की रचनाएँ-
नए गीतों में-
खुले आम चुन लिये गए
बाँध गई मुस्कान
यात्राएँ गंगा सागर की
साज़िशों भरे दफ्तर
हँसने के दिन
गीतों में-
गाँव छोड़ा शहर आए
घुटन से भरी भरी
जलती आँखें कसी मुट्ठियाँ
पाला मारे खेत
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घुटन से भरी
भरी
घुटन से भरी भरी
ये सारी संज्ञाएँ
मेज पर पड़ी पिन तक
करती हैं शंकाएँ
फाइल के गत्ते पर
अवर्तन मन का
फाड़ रहा अखबारी कागज जीवन का
उलझन के रेतीले पानी पर
तैर रही साधन की
बोझ लदी नौकाएँ
फर्श पर पड़े हुए
रद्दी से हम
धूल भरे वातायन से लेते दम
नत्थी सा हो गया अहम अपना
मिलती हैं चुंबन से
कराहती शिराएँ
हवा हवा हो जाता
आँखों का गीलापन
जीने में कुछ ऐसे शामिल है विज्ञापन
दलदल में फँसे हुए पाँव हैं
मुँह चिढा चिढा जाती
सिर फिरी हवाएँ
१६ अगस्त २०१०
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