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बनवासी
सहेगा अब और कब तक
होंठ अपने, खोल बनवासी।
सदी बीती
पर्णकुटियों के बसेरों में
सूर्य ने दस्तक नहीं दी
निविड़तम तेरे अंधेरों में,
और कब इन साजिशों का
मर्म जानेगा
और कब तक जंगलों की
खाक छानेगा,
तू बदल अब तो, बदलता है
सकल भूगोल, बनवासी।
और कसता जा रहा हर रोज़
साहूकार का फंदा
न्याय की उम्मीद बेजा
जब कि सारा तंत्र है अंधा,
गिद्ध-दृष्टि लगी महाजन की
पसीने की कमाई पर
तू फ़कीरा है जनम का
तुझे किसका डर,
अब समय की इस तुला पर
तू स्वयं को तोल, बनवासी।
१९ सितंबर
२०११
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