एक चाय की चुस्की
एक चाय की चुस्की
एक कहकहा
अपना तो इतना सामान ही रहा।
चुभन और दंशन
पैने यथार्थ के
पग-पग पर घेर रहे
प्रेत स्वार्थ के।
भीतर ही भीतर
मैं बहुत ही दहा
किंतु कभी भूले से कुछ नहीं कहा।
एक अदद गंध
एक टेक गीत की
बतरस भीगी संध्या
बातचीत की।
इन्हीं के भरोसे क्या-क्या नहीं सहा
छू ली है एक नहीं सभी इंतहा।
एक कसम जीने की
ढेर उलझनें
दोनों गर नहीं रहे
बात क्या बनें।
देखता रहा सब कुछ सामने ढहा
मगर किसी के कभी चरण नहीं गहा।
24 अक्तूबर 2007
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