संगदिल शहर में
संगदिल शहर में काठ के लोग हैं
दर्द के गीत गाने से क्या फ़ायदा
जब समूचा बगीचा कँटीला हुआ
फूल-कलियाँ खिलाने से क्या फ़ायदा
पात थे जब हरे आम गदराये थे
उस समय शाख पर भी न रुकने दिया
जिस्म में भूख थी चोंच दमदार थी
एक फल भी न तब तुमने चखने दिया
पात झरने लगे आम गिरने लगे
अब परिंदा बुलाने से क्या
फ़ायदा
रौशनी में नहाती रही ज़िन्दगी
तब तो जाने कहाँ तुम भटकते रहे
देहरी पर खड़ी देह के दो नयन
'आओगे' सोचकर राह तकते रहे
घुप अँधेरे ही जब रास आने लगे
ज्योति बन जगमगाने से क्या फ़ायदा
मृत्यु को मूर्तियों में सजाते रहे
ज़िन्दगी दर्द से छटपटाती रही
स्वर्ण-महलों में तुम ऐश करते रहे
भुखमरी झोंपड़ी को सताती रही
गलतियों को समय पर सुधारा नहीं
बाद में तिलमिलाने से क्या
फ़ायदा
नील अम्बर के मुख पर लटों की तरह
मेघ काले सभी को सुहाने लगे
ये लटकते रहे किन्तु बरसे नहीं
शुष्क धरती का मुँह तब चिढ़ाने लगे
देख दुःख-दर्द भी जब बरसते नहीं
व्यर्थ में गड़गड़ाने से क्या फ़ायदा
१० मई २०१० |