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इधर उधर की
इधर-उधर की सुनी सुनाई
कहते रहते चाँद-गगन की
आज कहो कवि अंतर्मन की
छल-फरेब पर, राग-द्वेष पर
काफ़ी कलम चला ली तुमने
नफ़रत पर लिखकर लोगों से
दूरी बहुत बढ़ा ली तुमने
इस मकाम पर आकर अब तो
बात करो कुछ अपनेपन की
रूप-रंग में कलम डुबोकर
बहुत लिखा तुमने यौवन पर
चलने को भी तके सहारा
बूढे, थके-थकाए तन पर
बदलो विषय काव्य-रचना का
कथा कहो तुतले बचपन की
खुली लटों का सघन अँधेरा
उसने तेरा तन-मन घेरा
कभी अधखुले वक्षस्थल की
बाहों में हो गया सवेरा
पहली बार उठाया था जब
उस क्षण की उस अवगुंठन की
आँख-आँख में, नज़र-नज़र में
सब कुछ पाया, सब कुछ खोया
दो नयनों की गहराई में
ख़ुद को पूरी तरह डुबोया
जिसने नींद रात की छीनी
कहो मित्र, कुछ उस चितवन की
बहुत उड़ लिए दिव्य गगन में
सूक्ष्म व्योम के सूनेपन में
ऊँची बातें बहुत हो गयीं
बहुत उड़ लिए ऊँचेपन में
नीचे उतरो कहो आज कुछ
इस धरती की इस जीवन की
बाहर काफ़ी हरियाली है
आकर्षक डाली-डाली है
मन को मोह रही कोयलिया
गा-गाकर जो मतवाली है
लेकिन जिसमें खेले-खाए
बात अलग है उस आँगन की
१० मई २०१० |