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ऊषा मले गुलाल
सतरंगी धरती हुई, करे अनंग किलोल
मीठे लागे हैं सखी, अब फागुन के बोल
आज हिये में उठ रही, फागुन-रसी उमंग
प्रिय के मुखड़े पर मलूँ, लाल गुलाबी रंग
सागर ने संयम तजा, लहरें भरें उछाल
नील गगन के गाल पर, ऊषा मले गुलाल
चादर काली ओढ़ के, सोया था संसार
सूरज ने बिखरा दिये, देखो रंग हजार
बगिया ने पी ली सखे, आज फागुनी भंग
कलियाँ हैं बहकी हुईं, मधुप करें हुड़दंग
चढ़ा रंग अब भंग का, मन में भरी उमंग
होली में सब होलिये, देखो मस्त मलंग
उतरीं सभी खुमारियाँ, चढ़-चढ़ सौ-सौ बार
आज पिला ऐसी मुझे, कभी न उतरे यार
पी थी उनकी आँख से, हमने कभी शराब
बहक रहे हैं आज भी, अपने पाँव जनाब
घूँट घूँट से साक़िया, नहीं बुझेगी प्यास
आज पिला दे ओक से, बैठ जरा तू पास
कितनी पी मैंने सखे, रहा नहीं कुछ याद
जबसे पी प्रभु नाम की, भूला सबका स्वाद
जनम जनम की प्यास रे, कर अब तो उपकार
प्रेम-सुधा उँडेल दे, हे मेरे करतार!
१ मई २०१७ |