स्वर की तरंगें
गुथ गईं स्वर की तरंगे
धमनियों के गर्भ में
उभरी शिराओ में
झुनझुनाते स्नायु
खींचकर छूट गई हैं नसें
अब न वे खामोशियाँ
बढ़कर हृदय को कसें
जो मुझे दे दी विदाओं में
हो चली गुन गुनी कुछ और
मेरी रक्त धारा
फैलकर आपाद मस्तक
घूमता हैं तप्त पारा
राग -रंगा राज हंसों की कतारें
उड़ चली उजली दिशाओ में
२१ मई २०१२ |