|
खिड़की पर आँख
लगी
खिडकी पर आँख लगी,
देहरी पर कान।
धूप-भरे सूने दालान,
हल्दी के रूप भरे सूने दालान।
परदों के साथ-साथ उडता है-
चिड़ियों का खण्डित-सा छाया क्रम
झरे हुए पत्तों की खड़-खड़ में
उगता है कोई मनचाहा भ्रम
मंदिर के कलशों पर-
ठहर गई सूरज की काँपती थकान
धूप-भरे सूने दालान।
रोशनी चढ़ी सीढ़ी-सीढ़ी
डूबा मन
जीने की मोड़ों को
घेरता अकेलापन
ओ मेरे नंदन!
आँगन तक बढ़ आया
एक बियाबान।
धूप भरे सूने दालान।
२१ मई २०१२ |