कौड़ी कौड़ी माया
कौड़ी-कौड़ी माया जोड़ी।
बादल देख गगरिया छोड़ी।।
सागर की चादर तानी थी,
चादर जो पानी-पानी थी।
चादर ने ही समझाया फिर,
बेमतलब है भागा-दौड़ी।।
अधरों-अधरों खेल-तमाशे,
पानी आगे पीछे प्यासे।
साँसों की जंजीर हवा की,
आखिर इक दिन सबने तोड़ी।।
झूठे-सच्चे सपन दिखाए,
कठपुतली-सा नाच नचाए।
उम्र मिली थी कितनी थोड़ी-
वह भी रही न साथ निगोड़ी।।
जितनी भी जिनगानी पाई,
हँसते-रोते खेल-बिताई।
उसका नाच नाच दुनिया में,
जिसने तुझसे डोरी जोड़ी।।
१२ अक्तूबर २००९