मान जा मन
मान जा मन
छोड़ दे
अपना हठीलापन
बादलों को कब
भुला भी पाएगा
एक चातक
आग में जल जाएगा
दूर तक वन
और ढोता धूप
फिर भी वन
मानते उस पार
तेरी हीर है
यह नदी जादू
भरी जंजीर है
तोड़ ते प्रण
सामने पूरा पड़ा जीवन
मर्म भेदी यातना में
रोज़ मरना
स्वर्ण मृग का
न कभी
आखेट करना
मूक क्रंदन
देह का
जल में विसर्जन
३० नवंबर २००९