रेत नहाई नदी (दोहे)
रेत नहाई है नदी, धूल नहाई प्यास।
धार-धार पर आँधियाँ, बूझ रहीं इजलास।।
आसमान को नापकर, हम बन गए 'अमीन'।
बेनापी, पाँवों तले, रोती रही ज़मीन।।
जियें किस तरह ज़िंदगी, इतने सर्द तनाव।
गंगाजल की बूँद है, झुलसे बीच अलाव।।
हलो ज़िंदगी बन गए, हम तुम बहुत अजीब।
बात न हो पाती कभी, गो हम बहुत करीब।।
कभी फ़ोन पर ही सही, मिलो ज़िंदगी मीत।
तुमसे बतियाये हुए, गए बहुत दिन बीत।।
अरी 'प्रजा' तू 'तंत्र' से, नाहक करती रश्क।
भूख लगे खा आँकडे प्यास लगे पी अश्क।।
दंगे लाठी गोलियाँ, अस्मत से खिलवार।
दिए 'तंत्र' ने 'प्रजा' को, ये कितने उपहार।।
मौसम तुमको क्या हुआ, कैसा चढ़ा जुनून।
आँखें पानीदार थीं, उतरा उनमें खून।।
कुछ लोगों की प्यास से, लगी देश में आग।
'उजली खादी' बन गई, लोकतंत्र पर दाग।।
कितने गर्म सवाल हैं, कितने सर्द जवाब।
खड़ी रिआया ठगी-सी, मुस्का रहा नवाब।।
मीनारी कद के लिए, लगी हुई है होड़।
लोग 'आसमाँ' के लिए, 'जमीं' रहे हैं छोड़।।
धरती की सारी खुशी, होगी उसके पास।
ऊपर उठकर बनेगा, जो सबका आकाश।।
प्रगति सूचना क्रांति की, बेमिसाल नायाब।
दिखा रही है प्यास को, गंगाजल का ख़्वाब।।
किसी जुआधर की सुबह, या मरघट की शाम।
महानगर की ज़िंदगी, तुझको दूँ क्या नाम।।
लोग संगमरमर हुए, ह्रदय हुआ इस्पात।
बर्फ़ हुई संवेदना, ख़त्म हुई सब बात।।
७ जुलाई २००८
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