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अनुभूति में प्रमोद कुमार सुमन की रचनाएँ-

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धूप की स्वर्णिम किरण

धूप की स्वर्णिम किरण

गुनगुनाती धूप की स्वर्णिम किरन
दे रही थपकी हमारे द्वार पर
गा रही है नव प्रभाती का भजन।

रोशनी की हर किरन का मोल है
धूप की हर किरन पर अनमोल है
हो सके तो कुछ बचाकर रख इसे
अन्यथा खतरे में अब भूगोल है

ये हृदय की कालिमा धो जाएगी
और कर देगी प्रकाशित तन व मन।

मत उजाले के लिए तू घर जला
जेहन में बारूद को अब मत गला
बन्द कर दे हरकतें शैतान की
हो सके तो कुछ नए दीपक जला

अन्यथा जिस दिन फँसेगा चक्र में
ओढ़ लेगा एक नफरत का कफ़न।

चाहे जितना भी अँधेरा कर दे तू
चाहे जितना विष हृदय में भर दे तू
रोक सकता है नहीं तू धूप को
चाहे जितने भी धमाके कर दे तू

धूप से जिस दिन पड़ेगा वास्ता
तू स्वयं कर लेगा मृत्यु का वरन।

तू अँधेरे से नहीं कुछ पाएगा
व्यर्थ ही दीवार से टकराएगा
धूप से संजीवनी मिल जाएगी
यदि समर्पित तू उसे हो जाएगा

भूलकर वो घाव जो तूने दिए
फिर गले तुमको लगा लेगा वतन।

तुमको कोई लाज है ना शर्म है
फिर भी समझाना हमारा धर्म है
हर किसी मजहब का ये मत है 'सुमन'
वैसा फल पाओगे जैसा कर्म है

बात यह ध्रुवसत्य है तू जान ले
धूप अँधियारे को करती है दफन।

१ जून २०१६

 

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