चाँद उतर आया है
पिछवारे पोखर में
चुपके से चाँद उतर आया है।
पोखर जल काँप रहा
थमी पुरवाई है
आँगन की सोनपरी
सहमी सकुचाई है
झुकी-झुकी पलकों ने आपस में
धीरे बतियाया है।
कंचन मृग-सा रूप
तुम्हारा छलता है
मेरे मन में संशय एक
सदा पलता है
मृग-मरीचिका के पीछे मन
बार-बार भरमाया है।
खड़ा द्वार मेरे जो
हरसिंगार हुलसित है
तुलसी के बिरवे का
पोर-पोर पुलकित है
देख रूप को रूप आज फिर
क्यों शरमाया है।
1 दिसंबर 2006