अनुभूति में
ज्योति
खरे
की रचनाएँ-
गीतों में-
उँगलियाँ सी लें
जाती हुई सदी का
जेठ मास में
धुँधलाते पहचान प्रतीक
साँस रखी दाँव |
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उँगलियाँ सी लें
सूख गई सदियों की
भरी हुई झीलें
भूमिगत गिनते हैं
खपरीली कीलें
दीमकों को खा रहा
भूखा कबूतर
छेदता आकाश
पालतू तीतर
पर कटे कैसे उड़े
पली हुई चीलें
कौन देखे बार-बार
बिके हुये जिराफ
गोंद से चिपका नहीं
छिदा हुआ लिहाफ
खिन्नियों की सोचकर
नीम छीलें
आवरण छोटा पड़ेगा
एक तरफा ढाँकने में
छिपकली सफल है
दृष्टियों को आँकने में
बढ़ न पाएँ पोर सीमित
उँगलियाँ सी लें
१३ मई २०१३
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