अनुभूति में
ज्योति
खरे
की रचनाएँ-
गीतों में-
उँगलियाँ सी लें
जाती हुई सदी का
जेठ मास में
धुँधलाते पहचान प्रतीक
साँस रखी दाँव |
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धुँधलाते पहचान प्रतीक
धूप किसी को किसी को छाँव
सुख के शहर ग़मों के गाँव
देख-देख आईना अब
खुद पर रहे हैं खिलखिला
गुजरे कल के जंगल में
खोजें प्रणय का ढहा किला
बढ़ती ही जाती हैं दूरियाँ
धुँधलाते पहचान प्रतीक
घास दुखों की हो गई काबिज
गुम हो गयी सुखों की लीक
नाकाबिल चलने से पाँव
नहीं मारती जोर ह्रदय में
अब जीने की चाह
दिवस महीने बरस-बरस
जीना हो गया गुनाह
अपने सम्मुख खड़ी जिरह
करती सी स्थितियाँ
मौन हमारा निर्विरोध
अपराधी सी स्वीकृतियाँ
उल्टे पड़े यहाँ सब दाँव
१३ मई २०१३
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