अनुभूति में
जिज्ञासा सिंह
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गीतों में-
आँधियों की बस्तियों में
और बसंती ऋतु
भ्रम का झूला
समय से अनुबंध
हार में जीत
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हार में जीत
मेरी हर हार में जीत उनकी हुई
जीत ही जीत का कारवाँ बन गया
दायरे में सजी थी जो दुनिया मेरी
दायरा ख़ूबसूरत मकाँ बन गया
थी जो बचपन में माँ से कहानी सुनी
एक कछुए की मद्धिम रवानी सुनी
जब भी खरगोश दौड़ा उसे छोड़कर
थक गया रुक गया राह के मोड़ पर
उस कहानी की चूलों में उलझे कई
प्रश्न का हल मेरा आसमाँ बन गया
वो कथा मेरे मन में गई है अटक
बूँद पानी की कागा तलाशे भटक
कर्म के पंख साजे वो उड़ता रहा
आस विश्वास का रंग जड़ता रहा
डूब कंकड़ पिपासा बुझाता रहा
था जो मिट्टी का घट वो कुआँ बन गया
शीश ऊपर सजा एक चिकना घड़ा
खुर उधारी में देकर गया चौगड़ा
दौड़ लगती रही जीतने के लिए
धार धरकर घड़ा शीश माथे चुए
मैं फँसी धार की जब भी मझधार में
एक कछुआ मेरा हौसला बन गया
१ सितंबर २०२३
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