अनुभूति में
जिज्ञासा सिंह
की रचनाएँ-
गीतों में-
आँधियों की बस्तियों में
और बसंती ऋतु
भ्रम का झूला
समय से अनुबंध
हार में जीत
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आँधियों की
बस्तियों में
आँधियों की बस्तियों में
एक दीपक जल रहा है
खा रहा झोंके अहर्निश
जूझता पल-पल रहा है
टूटतीं हैं खिड़कियाँ
है झाँकती घायल किरन
हो रहा चारों तरफ़
दृढ़ श्वास का आवागमन
डगमगाते दीप के राहों
में गहरी खाइयाँ
खाइयों में ही उगा
एक झाड़ बन संबल रहा है
फिर भी दीपक जल रहा है
काटता घनघोर तम
लेकर हथौड़ी ज्योति की
कसमसाकर निकल आता
वो सुदर्शन मौक्तिकी
बंद था जो सीपियों में
एक युग से तिमिर संग
सज गया माला में शोभित
कंठ में झिलमिल रहा है
अब भी दीपक जल रहा है
कौन है जो भटकता
चारों तरफ़ है चक्षु खोले
जुगनुओं के इस नगर में
दीपकों की ज्योति मोले
मोम बनकर पिघलना है
जानता पाषाण भी
है उसी को मूल्य लौ का
जो निरन्तर चल रहा है
सच है दीपक जल रहा है
१ सितंबर २०२३
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