ज्योतिधन्वा गंध
राम जाने
ले गई क्यों बद घड़ी
कंठ से मेरे सुरीली तान!
अब दृगों के बीच
है ठहरा हुआ
एक अंधी प्यास का
मैदान!
हाथ में थी
लौ किसी सौगंध की
रोशनी थी
ज्योतिधन्वा गंध की
ओस भीगी पंखुरी को
लीलकर
भर रही है आग मेरे कान!
थे उमंगों के कई
हँसते कंवल
और मीठी लोरियों के
स्वप्न-छल
शोकगीतों की घुटन में डूबकर
मर रहे हैं
आज मंगल-गान!
२४ फरवरी २००६ |