एक टूटा स्वप्न
कौन गीला बोल बनकर
थरथराता है
साँवली-सी चाह का मन
कांप जाता है!
साथ नीली घाटियाँ
जो नींद वाली हैं
रात के प्रहरी
रुदन ने रौंद डाली हैं
एक टूटा स्वप्न
जब-तब याद आता है!
दूर जा बैठा बुलावा
आज बाहों का
ठंड में ठिठुरा खड़ा
सहगान राहों का
इक अंधेरा
मंत्र-सा कुछ फूँक जाता है!
दिख रहे हैं हर तरफ़
बस रेत के ढहते घरौंदे
कौन है जो
निर्वचन ठहराव पर
दो गीत बो दे
यह अकेलापन
किसे जब-तब बुलाता है!
२४ फरवरी २००६
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