दोहे
वाणी के सौन्दर्य का शब्दरूप
है काव्य
किसी व्यक्ति के लिए है कवि होना सौभाग्य।
जिसने सारस की तरह नभ में भरी
उड़ान
उसको ही बस हो सका सही दिशा का ज्ञान।
जब तक पर्दा खुदी का कैसे हो
दीदार
पहले खुद को मार फिर हो उसका दीदार।
जिसमें खुद भगवान ने खेले खेल
विचित्र
माँ की गोदी से अधिक तीरथ कौन पवित्र।
कैंची लेकर हाथ में वाणी में
विष घोल
पूछ रहे हैं फूल से वो सुगंध का मोल।
दिखे नहीं फिर भी रहे खुशबू
जैसे साथ
उसी तरह परमात्मा संग रहे दिन रात।
मिटे राष्ट्र कोई नहीं हो कर
के धनहीन
मिटता जिसका विश्व में गौरव होता क्षीण।
इंद्रधनुष के रंग-सा जग का
रंग अनूप
बाहर से दीखे अलग भीतर एक स्वरूप। |