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रो पड़ता हूँ
अपनी गुमसुम सी आँखों में
एक धुँधली सी तस्वीर लिए
मैं रो पड़ता हूँ
कुछ खोई-खोई यादों से
अहसासों की जंजीर लिए
मैं रो पड़ता हूँ
उनके कहने पर निकल पड़ा
मालूम हुआ रास्ता है बड़ा
काँटों पर पग रख चलना है
बिन घी, बाती को जलना है
बदली बदली इन राहों पर
अँधियारे का आलोक लिए
मैं रो पड़ता हूँ
फिर मौसम ने करवट बदली
उठा तूफान, हवा मचली
बिन पतझड़ शाख हुई खाली
कैसे करता मैं रखवाली?
यों लुटे हुए इस वैभव से
मन में पीड़ा की पीर लिए
मैं रो पडता हूँ
प्रश्नों से प्रश्न उलझ बैठे
तुम कैसे फिर भी चुप बैठे?
मुझसे इनका हल पूछ रहे
मानो मानव मन बूझ रहे
इन बुझे-अनबुझे प्रश्नों से
एक हारा हुआ जमीर लिए
मैं रो पडता हूँ
अपनी गुमसुम सी आँखों में
एक धुँधली सी तस्वीर लिए
मैं रो पड़ता हूँ १
जुलाई २०२२ |