अनुभूति में
प्रवीण अग्रवाल
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मृत्यु के आगे
विदेश में भारतीय किराएदार |
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कविता - मृत्यु के आगे
आज कुछ फ़ुर्सत है फिर, कि आज कल
तन्हा हूँ मैं
खो चुका हूँ, खुद को ही अब ढूँढने निकला हूँ मैं
मैं कहीं खोया हुआ था रोज़ के व्यापार में
नौकरी में, बंधनों में, प्यार और परिवार में
ज़िंदगी ने जो सिखाया, जोड़ता चलता गया
वक़्त के साए में खुद को मोड़ता चलता गया
ये नहीं सोचा, ये कश्ती किस किनारे जा रही
कोई और है रास्ता क्या, जो सहर दिखला रही
कितना मैने खो दिया, और क्या क्या पा लिया
क्यूँ करूँ हिसाब, क्या घाटा और ऩफा किया
मौत कहते हैं जिसे होता क्या वो एहसास है
इस नाम-ओ-पहचान में ऐसा छुपा क्या ख़ास है
कि छोड़ने से इनको, यूँ व्याकुल हुआ अंतर मेरा
सोचो तो, मौत है बस एक नये सफ़र का डर मेरा
निकल के इस जिस्म से मैं किस डगर पे जाऊँगा
आज के अपनों में से किसको तब साथ पाऊँगा
है तन्हा ही जाना मुझे, अंजान है वो रास्ता
हो कैसी भी ये दुनिया, कट जाएगा हर वास्ता
आज तन्हाई ने है एक मुझको ये मौका दिया
बैठ कर सोचूँ मैं क्या हुआ, जो भी किया
कौन सी मंज़िल को पाने ज़िंदगी ये चल रही
किस फ़िज़ा में नाम और पहचान ये पिघल रही
कौन हूँ मैं, क्यूँ हूँ इस जिस्म में बैठा हुआ
इस से पहले और कौन से रूप में पैदा हुआ
क्या मेरी शुरुआत थी, क्या लिखा अंजाम है
ये ज़िंदगी उस पूरे सफ़र में क्या कोई क़याम है
कब तलक मैं बे-इरादा यूँ ही बस बहता रहूँ
क्या है मेरा मुद्दवा, अब तो कुछ पता करूँ
लफ्ज़ और एहसास के आगे और कोई जहाँ हो
मेरी मंज़िल ने मेरे लिए छोड़ा कोई निशान हो
देखें की इस तलाश का हासिल कोई कब तक मिले
कल से शुरू हो जाएँगे जब ज़िंदगी के सिलसिले
३० अप्रैल २०१२ |