|
कल के लिये
वक्त
सीधे चुपके हाथों से
प्रेम बीज बोता है।
लेकिन,
यह निर्दयी है क्योंकि
जीवन की छोटी–छोटी क्यारियों में उपजी
फसलों को काटकर, अपने पास रख लेता है।
और छोड़ देता है
सिर्फ इसकी जड़ें!
सींचकर पुनः पनपाने के लिये।
वक्त की टेढ़ी–मेढ़ी गलियों में
सीधे सच्चे भ्रमणसंगी का मिलना
कितना सुखद है!
जैसे–
सौम्य मुख से उठने वाली, संगीत की तान।
पर, वे खो जाते है कभी गलियों मे,
कभी राजपथ की भीड़ में!
शायद, लोग अजनबी दिखना चाहते हैं।
उलटना कभी जीवन पुस्तिका के पन्नों को
भावनाओं के स्पर्श से,
इनमें दिखनेवाली आकृतियाँ ऐसी होंगी
जिनमें अपना ही प्रतिबिम्ब दिखाई देगा
और आत्म–विस्मृति का सुख होगा।
२४ अप्रैल २००४ |