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  हताशा और निराशा


हताशाएँ और निराशाएँ
तो फिर भी,
झेल लेता है आदमी
जब भी हारता है, तो बस
अपनी अपेक्षाओं से ।


मन के भीतर, मन के बाहर
कितने जाले, कौन निकाले
फिर फिर आयें फिर फिर जाएँ
वही अँधेरे वही उजाले।


किरकिरी की आड़ लेकर
दुःख के पहाड़ गलाना
और फिर आँचल की कोर से
आँखे पोंछ मुस्करा देना
कोई नया रिवाज़ तो नहीं है ।


आशा जीवन को
गति देती है, तो
निराशा दम तोड़ देती है ।


रिश्तों को लेन-देन की
बद-नज़र से दूर रख
ये जगह पा जाये तो
रिश्ते तोड़ देती है।


ज़िन्दगी यदि ठहर जाये
तो अनूदित मृत्यु है
और जीने के लिए
अविरल भटकना चाहता हूँ


साँस साँस बन गयी लुटेरी
हरजाई हर भाव है
मन का मन के आँगन से
मीलों तक अलगाव है।

७ मार्च २०११

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