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तलाश

सुनो,
तुम कुछ तो बोलो
न बोलने से भी
बढ़ता है अँधेरा।

हम कब तक अपने-अपने अंधेरे में बैठे,
अज़नबी आवाजों की
आहटें सुनें!

इंतज़ार करें
कि कोई आए
और तुमसे मेरी
और मुझसे तुम्हारी
बात करे।

फिर धीरे-धीरे पौ फटे
हम उजाले में एक दूसरे के चेहरे पहचानें
जो अबतक नहीं हुआ
तब शायद जानें
कि हममें से कोई भी ग़लत नहीं था।

परिस्थितियों के मारे हम,
ग़लतफ़हमियों के शिकार बने
अपनी ही परिधि में
चक्कर काटते रहे हैं।

कहीं कुछ फँसता है
रह-रहकर लगता है
कौन जाने!

बिंदु भर की ही हो दूरी,
कि हम अपनी-अपनी जगह से
एक कन आगे बढ़ें
और पा जाएँ वह बिंदु
जहाँ दो आसमान वृत्त
परस्पर
एक दूसरे को काटते हैं।

सच कहना
तुम्हें भी उसी बिंदु की तलाश है ना?

 

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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