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अनुभूति में भाविक देसाई की रचनाएँ

छंदमुक्त में-
अस्तित्व
कल्पना की सीमा
ख़ुदी
प्रेम
मेरे शब्दों के पूर्वज

कल्पना की सीमा

सावन के पेड़ से दो-तीन बूँदे तोड़ कर
मैं सींचना चाहता था
पतझड़ के कुछ सूखें पत्ते

बादलों से चुटकी भर आकाश छान कर
सजाने थे मुझे सूरजमुखी पर
किरणों के सुनहरे रेशे

शिखरों से हथेली भर बर्फ़ माँग कर
बोना था मुझे सहरा में
शरद का ठंडा चाँद

गली-कूचों से गोद भर उठा लाने थे मुझे
शहर के चौराहे पर
फूलों के हँसते-खेलते पौधे

गगनचुंबी इमारतों से फेंक देने थे मुझे
रातों की नींद तोड़ने वाले
टिमटिमाते तारे

पर
मैं
कुछ भी

कर सका…

मेरी कल्पनाओं की सीमा
मेरी कविता तक ही सीमित...

१ अगस्त २०२३

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