अनुभूति में
भाविक देसाई की रचनाएँ
छंदमुक्त में-
अस्तित्व
कल्पना की सीमा
ख़ुदी
प्रेम
मेरे शब्दों के पूर्वज
|
|
अस्तित्व
कई पेड़ गिरे हैं मुझ पर
तब से मैंने उगना शुरू किया…
पर
उगते उगते
उगना बंद हो जाता है एक दिन
लगता है
ज़िंदगी गुज़र चुकी है
पर उम्र काटनी बाक़ी है अभी भी लम्बी
खोखले साल
लटकने लगते है हवा में
मानो
लटकना
उगने और गिरने के बीच की
सार्थक अवस्था हो कोई
फिर अचानक
एक चिड़ियाँ आती है
मेरे बचे-खुचे सालों से
तिनका तिनका
दिन
चुन कर ले जाती है
एक घोंसला बनाती है
अपना परिवार उगाती है
पेड़ गिरे न होते मुझ पर कभी
तो
परिवार
भी उगा न होता मुझमें शायद
लटकते सालों में
पेड़ ऊँचाई नहीं
कद
पाता है अपना…
१ अगस्त २०२३
|