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तुम्हारा मेरा सच
वो जो तुम्हारा मेरा सच,
जो इक ठहरा पल था
वो गुजरता क्यों नहीं?
हर पल का वो साथ हमारा,
कभी सामने तो कभी सोच में,
आँखों से हटता क्यों नहीं है . . .?
जो इक ठहरा पल था
वो गुजरता क्यों नहीं?
कसमें, वादे, नाते, इरादे
सब संग–संग चलते रहे।
हम तुम राहों पर बेखबर बढ़ते रहे,
टूटा–आइना टुकड़ों में
बिखरता क्यों नहीं . . .?
जो इक ठहरा पल था
वो गुजरता क्यों नहीं?
उजालों में प्यार की पहचान होती रही,
अँधेरों में दर्द की शिद्दत बढ़ती रही।
दर्द की पनाहों में अब,
ज़िंदगी शुक्रगुज़ार क्यों नहीं . . .?
जो इक ठहरा पल था
वो गुजरता क्यों नहीं?
वो जो तुम्हारा मेरा सच,
जो कभी था, अब नहीं है,
जिंदगी उसके दामन में,
अटकी, अब भी वहीं है।
फिर इसी जहान में ही मिलेंगे,
यह तुम्हें एतबार क्यों नहीं . . .?
जो इक ठहरा पल था
वो गुजरता क्यों नहीं . . .?
ये तुम्हारा मेरा सच
तुम्हें इसका इंतज़ार क्यों नहीं?
१६ मार्च
२००४ |