अन्ततः
हे
प्रिय!
पीड़ाओं से व्यथित दुधिया चाँदनी
मटमैली हो रही है
पिघलती हुई साँझ रात की स्याही में
गुम हो रही है
बाधाओं से घिरी बदरी की टुकड़ी
काली हो रही है
आकाश गंगा में नहाए तारों के झुरमुट
अभी भी सूखे हैं
अपने ग्रहों की परिक्रमा करते चन्द्र
थक सोने चले हैं
साँझ के झुटपुटे में पंछियों का कलरव
नीरव हो गया है
पथराई आँखें ईशान से उत्तर को निहारती
अटल ध्रुव पर टिकी हुई हैं
ऐसे में . . .
तुम्हारे अटल विश्वास की धरोहर थामे
हर आहट पर तुम्हारे कदमों की पदचाप
सुनने को आतुर
मेरी पंचधातु से बनी नश्वर काया
तुम्हारी आस में पिघलकर लावा हो चली है
अन्ततः
भोर की प्रथम किरण से पूर्व यह
पंचमहाभूतों से समा
महाप्रयाण की यात्रा पर होगी . . .।
१६ मार्च
२००४ |