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विडम्बना
आदमी आदमी से डरता है
जबकि कहता है आदमी ही आदमी से –
'न डर तू किसी की कुटिल भंगिमा से'
यह कैसी विडम्बना है!
यह कैसा आश्चर्य है!
करनी जो कबकी कहीं काफूर हो गयी
रह गयी है सुखी चिल्लाहट
सूखी चिकनाहट
इस आबाद बे–आबाद दुनिया की लम्बी पेटी में।
खड़ी हैं लाश, लाश ही लाश
यह देखो,
इस प्राणवान धरती की गोद में
पुरवैया की शीतलता की ओर पीठ किये हुए
अनजाने से,
शिथिल गर्दन की निर्बल मुद्रा में
बलहीन तेजहीन–सा बन
निश्चिन्त है
चिर स्पन्दित प्राण . . .।
क्यो . . .?
कौन है वो
कि
जिसने पिला दिया है
हलाहल जिंदा रखने वाला,
होश आने के पूर्व ही
परिपक्व होने से पहले ही?
अरे! ओ!! साक्षी!!
अब भी तेरा मौन
क्यों नहीं गरजता?
कहीं तू भी
उसी हलाहल को कंठ के नीचे उतारकर
क्षीर के समंदर में,
शेष के विष की थैली के अंदर
बेहोश–बंद तो नहीं हो गया है,
कालिया के शीश–मण्डल पर
ताण्डव का घूँघरू बाँध–बाँध कर
थिरकने वाले . . .!
१ दिसंबर २००२
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