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मैं प्रतिबिम्ब
उसी का रे
मेरे प्राणों के स्पन्दन वह ही मंजुल छवि बाले!
उलझ उलझ हैं प्राण लुप्त बालों में जिसके घुँघराले!
पलपल उससे दूर नहीं अब स्वस्थ बना रह पाता है,
उसका चिंतन और मनन ही मन–मतंग को भाता है।
प्राणों के भी प्राणों में वो बैठ गयी है ऐसे रे,
बैठ गये हो अविचल–हिमगिरि धरा–अंक में जैसे रे।
अब से पहले जो सपना थी अब अपना बन आयी है,
कब की बिखरी आशाओं को वो समेटकर लायी है।
अब यदि वो छोड़ेगी मुझको प्राण नहीं रह पायेगा,
रह जाये कुछ धोखे से तो मुर्दा ही रह जायगा।
वो मेरा शोणित–संचालन नयन–युगल की आभा भी,
कर की शक्ति सतत विजयी वो, अन्त–तत्व की प्रतिभा भी।
वह मेरी बुद्धि की जननी, वह ही मन की स्थिरता है,
रग–रग में उसकी ही धुन है जीवनकी सुर–सरिता है।
मेरा जीवन उसके कर में मेहंदी बनकर पैठ गया,
वह मेहंदी उन्हीं हाथों में अब चितरेखा बन बैठ गया।
सच मानो यह ख्याल नहीं है स्वर्ण–कथा सच्चाई की,
मेरा सब कुछ उसमें, मैं तो ढाँचा भर परछाई की।
अमृत–बिम्ब बनी वह मेरा, मैं प्रतिबिम्ब उसीका रे,
यदि वो है हिमगिरि की सलिला, मैं फिर उसकी धारा रे।।
१ दिसंबर २००२
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