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सितारों से
हमको गगन के खुले रास्तों से
कहीं दूर कुछ और आगे बढ़ाकर,
कहर की कमी की किसी जिंदगी में
उड़ाकर चलो ले गगन के सितारे।
आँखें न गीली, जिगर में पियूषी
धारा प्रवाहित होती जहाँ पर
तन हो न, चंदन सुगन्धी–पवनका
मन हो, अहं को करे जो सुशीतल
घर एक ही में गरजती नहीं हो
भवों की तनावट दशा–दश उठाकर
दो आत्मा के सहज और शाश्वत
खिलते हुए हों सुबंधन निरन्तर
कहाँ है? कहाँ है? बताओगे मुझको?
ऐसा जगत हे! गगन के सितारे?
विनाशी–भलाई मलाई लगाकर
नयन नोंचती नित नहीं हो जहाँ पर
नहीं टूटते हो चुभन के ग्रहों से
विनय की मृदुल साज–सैया तड़पकर
माँ का गला हो न अवरूद्ध रोकर
जहाँ खेल पायें बहन–भ्रात मिलकर
पावन–सहज–प्रेम–सम्बन्ध पर भी
जगत–दृष्टि–हाबी न हो दुष्ट बनकर
साहस तुम्हारे कभी पास होगा?
इतना सुदृढ़ हे सितारे गगन के?
चल ले सको तुम हमीं को उड़ाकर
या उस जगत का मिलन हो यहाँ पर?
१ दिसंबर २००२
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