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अनुभूति में तृषान्निता बनिक की
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छंदमुक्त में-
अदालत तले अँधेरा
खलता था...खल रहा है...खलेगा
तुम्हारे दो काले बादल
दो रोटियाँ
 

 

तुम्हारे दो काले बादल

कल रात तुम्हारे दो काले बादल,
मूसलाधार बरसे होंगे!
जिंदगी की हर जद्दोजहद,
आपाधापी में,
हर क्षोभ, हर चिंता,
हर असफलता, हर कुंठा,
हर गिरावट, हर थकावट,
हर रुकावट - कड़वाहट,
को सहते-सहते
लंबे अरसे से वे
भारी तो ज़रूर हो रहे होंगे!
कल रात,
तुम्हारे दो काले बादल
मूसलाधार बरसे होंगे!

शायद कभी, किसी के
उत्कंठित अपनत्व ने
उस भारीपन को ताड़ लिया होगा।
पर उसके "तुम ठीक तो हो?"
पूछ लेने पर,
तुमने बस सिर हिलाकर
आँखें चुराए होंगे!

पता है
तुम्हारा घोर आत्माभिमानी व्यक्तित्व तुम्हें
किसी और के समक्ष
शिथिल पड़ने की अनुमति नहीं देता।
पता है
तुम्हारा तीव्र अंतर्मुखी व्यक्तित्व तुम्हें
अपनी कमियों-असफलताओं के बरक्स
अपने गाढ़े नैराश्य को
अपनी व्यथा, अपनी गाथा को
अपने एकाकीपन की असहनीय पीड़ा को
किसी और के समक्ष
अनावृत करने की अनुमति नहीं देता
अंदर ही अंदर घुटते जलते रहने
पर
मुँह से "आह" तक न करने की
दारुण प्रतिभा है तुममें!
कल रात
तुम्हारे दो काले बादल
मूसलाधार बरसे होंगे!

पर,
किसी की आँखों में देख
सब कुछ कह देने की दूर्दमणीय इच्छा
स्वयं को किसी और के समक्ष
पूरी तरह अनावृत कर देने की
अदम्य अभिलाषा
चुभती काटती मौन को तोड़
"नहीं मैं ठीक नहीं हूँ"
कह पाने की बेचैनियाँ भी
गहरे कहीं छुपी हुई है न तुममें?

तब क्यों हर बार
इच्छाओं-अभिलाषाओं पर
व्यक्तित्व भारी पड़ जाता है?
क्या हैं ये?
स्थूल आत्माहंकार?
या फिर सत्य को नग्न देख लेने का भय?
या फिर अपनी कमियों से
भागते रहने की कोई व्यर्थ चेष्टा?
या कोशिश अपनी व्यथा सुनाकर
किसी और को व्यथित न करने की?
कोशिश अपनों को को केवल सुख देने की
और आप अपने भीतर
सभी उथल-पुथलों को सह जाने की?
आह! क्या हैं ये?
अर्धरात्रि की एकांत निस्तब्धता में
आदिम आकांख्य निद्रा की
सुदूर क्षितिज के पार
दिल में ये तमाम सवाल
घंटों तक उमरे-घुमरे होंगे
कल रात तुम्हारे दो काले बादल
मूसलाधार बरसे होंगे!

१ अगस्त २०२३

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