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अनुभूति में तृषान्निता बनिक की
रचनाएँ -

छंदमुक्त में-
अदालत तले अँधेरा
खलता था...खल रहा है...खलेगा
तुम्हारे दो काले बादल
दो रोटियाँ
 


 

 

अदालत तले अंधेरा!

यहाँ घुप्प अंधेरा है।
क्यों? अरे हाँ आँखों पर पट्टी बंधी है!
दोनों 'बंधे हाथ' दुख रहे हैं मेरे।
युगों से तराज़ू औ' तलवार उठाते हुए!
कमर टूट रही है।
(अ)न्याय का बोझ ढोते हुए!

पर दोनों कान खुले हैं, बिल्कुल खुले हुए
सारे मुकदमे सुनती हूँ
और बहुत कुछ कहती हूँ
पर, मुझे कोई सुनता ही नहीं
"वकील सहाब सबूतों को मरोड़िए मत!"
"गवाहों को बहकाइये मत!"
"जज साहब यह क्या हो रहा है? आप कुछ कहते क्यों नहीं?"
"अरे मुझे कोई सुनता क्यों नहीं? हैलो?!"
"अरे कोई तो सुनो! हैलो?"
नहीं सुनेंगे। स्त्री जो हूँ!

मैं थक गई हूँ प्रत्येक दिन
सुनते-सुनते!
लड़ते-लड़ते!
चीखते-चीखते!
तराज़ू औ' तलवार उठाते हुए!
मुझे अब और अदालत में नहीं रहना।

१ अगस्त २०२३

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