अनुभूति में
स्वदेश भारती की
रचनाएँ -
छंदमुक्त में-
अंत अनंत
कुछ टूटता है भीतर
जीवन वन
महारण्य
संबंध-छन्द |
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महारण्य
हर दिन एक काली सुबह
खड़ी हो जाती है
मेरे और सूर्य के बीच
जबरन कुछ अशोभनीय कहती है
हाँ जबरन मेरा हाथ खींच
तुम स्वतंत्र नहीं हो
क्यों उतारते हो प्रतिदिन
मन, मस्तिष्क में सहेजी हुई
संवेदना का भार
क्यों करते हो बार-बार समझौते
संघर्षों और दुःखों से मनुहार
आँसुओं से अपनी शुष्क जीवनलता को सींच
आह! मेरे माथे की नसें चटकती हैं
अर्जुन के गांडीव पर शर संधान की तरह
किन्तु मेरे सामने तो
किसी भी चिड़िया की आँख
दिखाई नहीं देती
भारत महा अरण्य के बीच
कितना फासला है
मेरे और प्रभाती सूर्य के बीच।
२ दिसंबर २०१३
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