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अनुभूति में स्वदेश भारती की
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छंदमुक्त में-
अंत अनंत
कुछ टूटता है भीतर
जीवन वन
महारण्य
संबंध-छन्द

 

अंत-अनंत

हमारा प्रारम्भ नहीं
अन्त ही विलीन होता अनंत में
किन्तु अन्त के बाद का लेखा-जोखा
कौन करता है
कौन फर्क करता है
पापात्मा और संत में
प्रारम्भ से लेकर अन्त तक की
जीवन परिक्रमा में
थक जाते हैं तन मन
अशक्त हो जाते हैं संघर्षों में प्राण-संवेदन
सूख जाते हैं
आनन्द-मन-वृन्दावन
अतीत साथ छोड़ता नहीं जीवन पर्यन्त
स्मृतियों के मेघ घिर घिर कर
बरसते हैं, तूफान के साथ
हमारी वेदना के वसन्त में
कैसे किस तरह
हमारी संपूर्ण सत्ता
मिट जाती अनंत में।

२ दिसंबर २०१३

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