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अनुभूति में स्वदेश भारती की
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कुछ टूटता है भीतर

कुछ टूटता है
भीतर ही भीतर निःशब्द
जैसे हृदय के एक एक रेशे को
कोई कूटता है
कभी आहिस्ता कभी जोरों से
आहत करता दर्प विदग्ध....
उस टूटन के आघात
असहज पीड़ा लिए, सहजता मान-अपमान
क्षणों के जोड़ घटाव से बचे
निःशेष को अपना मान
जीता हूँ अपनत्व का बचा हुआ संदर्भ लिए
खोजता रहा अब तक अपनी पहचान
भविष्य की सीढ़ियाँ चढ़ता समय-बद्ध
कुछ टूटता है
हृदय के भीतर मौन निःशब्द
किन्तु उस टूटे हुए को भी तोड़ता है
बीता हुआ कल
कैसे कैसे दल बदल कर
खलनायक की तरह इस्तेमाल करता छल बल
चोट पर चोट करता
आह भरने का भी समय नहीं देता
प्रवंचना से सारे आयाम प्रयोग करता
अन्तस् का छिपा हुआ सत्य भी
अपने कुचक्र से
छोड़ जाता रक्तरंजित प्रारब्ध
टूटता है बहुत कुछ भीतर
और दे जाता एकाकीपन, मौन, निःशब्द।

२ दिसंबर २०१३

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