झूठ के पक्ष में
झूठ की हवा-पानी में साँस लेते हुए
मेरी आँखों में उगा है
ग़लतफ़हमियों का काँटेदार जंगल
क़दमों तले बिछी है,
फ़रेबों की घास!
सच भी शायद मेरी तरह मजबूर है,
हक़ीक़त से काफ़ी दूर है!
सच! जो छू ले,
जीवन कंचन बन जाए
जिसे पढ़ या गुन लें
पूजा-मंत्र बन जाएँ
जो श़ुशबू-सा महके
नेह-प्यार, ईमान बन जाए।
सोचती हूँ
सच अगर कहीं नहीं है,
तो मुझे शिद्दत से तलाश क्यों है?
अगर सच ही मौजूद है
तो हमरी भेंट-मुलाक़ात क्यों नहीं है?
या सच क्या वाक़ई ख़ौफ़नाक रेगज़ार है
जहाँ भटकना बेकार है?
इससे तो बेहतर है,
मैं भी मक्कारी का नक़ाब ओढ़ लूँ,
कोरे झूठ से नाता जोड़ लूँ।
१९ जनवरी २००९