अनुभूति में
सुशील आज़ाद की रचनाएँ-
छंदमुक्त में-
नहीं लौट पाई वो
जिंदगी
दर्द
साँझ का सूरज
सूरज की बैसाखियाँ |
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जिंदगी
चौराहे पर जिंदगी हो तो
कई चेहरे भी अपने से हो जाते है
उस एक चेहरे की नमी
रोज ओस बन कर
मेरी आँखों में उतर जाती है
आँख जब प्रेरणा देने लगती है तो
सावन की बदली की मानिंद
उतर आती है दिल के आकाश में
मेरी आँखो की कालिमा में हर रोज डूब जाती है
वे तमाम आँखे जिनके स्वप्नों ने
आत्महत्याएँ कर ली हैं
नर और नारी के बीच
मरती जिंदगी कभी भी रिश्तों के
आधार नहीं मानती
मरते हुए लोग सूखती आखों
के बीच जिंदगी की पहचान उभरती है
३ अक्तूबर २०११ |