अनुभूति में
सुशील आज़ाद की रचनाएँ-
छंदमुक्त में-
नहीं लौट पाई वो
जिंदगी
दर्द
साँझ का सूरज
सूरज की बैसाखियाँ |
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दर्द
वो दर्द—वो घाव
भले ही सीमित रहें हों
समय के व्यूह चक्र में
उनके दाग़ नहीं मिटा करते
हम तुम ऐसे ही बने रहें
तो जल्द ही जान जाओगे
भीतर पलते हुए प्रतीक्षारत
दर्द के घाव
दर्पण सम्मुख खडे
चेहरे पर
जिन्हे पढने में देर न लगेगी
बदलते दौर में
घावों को विषाक्त कर
नासूर बना देता है--- एक दिन
जीवन की ठहरी वादियाँ
तुम्हे रोक रोक कर पूछेंगी
प्रेम की परिभाषा
तब
तब देखना तुम्हारी मूक भाषा
डूबती उतरती
यादों की खाइयाँ समा जायेगी
जहाँ मिलन पलों का उत्सव देख
वियोगी घडियों की सूइयाँ ठहर जायेंगी
वहीं दर्द--- वहीं घाव बनकर
३ अक्तूबर २०११ |