अनुभूति में
सुशील आज़ाद की रचनाएँ-
छंदमुक्त में-
नहीं लौट पाई वो
जिंदगी
दर्द
साँझ का सूरज
सूरज की बैसाखियाँ |
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नहीं लौट पाई वो
‘कितनी पगडंडियों से गुजरते हुए,
उसने देखे होंगे,
कई बसंत कई पतझड़।
कभी नहीं पूछ पाया मैं
उसके मन की उमंग
कहाँ से शुरू होती है ?
उच्छल उत्तुंग लहरों के साथ,
कहाँ डूब जाना चाहती है रोज॥
कुछ रोज साथ-साथ चलने ही हद,
और फिर नितांत अकेलेपन की
दम घोटू हवाओं के बीच
कहाँ , कब और कितनी देर तक,
टहलती रही मेरे जिस्म में।
मगर,
मै नहीं समझ पाया उसको,
वो कौन थी?
जिसके संसर्ग में मै ,
त्रिकाल दर्शी की तरहा देखा करता था
अपने भविष्य की कंदराओं को सहज भाव से,
जिसकी यादों के झरोखे से आज भी लहकते हैं
बसंती झोंके।
जो लौट नहीं पाई मेरी राहों में,
मै भी खोजता हूँ अवशेष उसके,
यहीं जहाँ वो लौट नहीं सकेगी कभी॥
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