अनुभूति में
सुनील कुमार
श्रीवास्तव की
रचनाएँ -
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प्लास्टिक युग के मनुष्य
यात्रा
स्कूल जाते बच्चे का प्रेम-गीत
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यात्रा
शहर की सडकों से उमड़े धुवों के बीच
जलती आँखों वाली इस वीरान बालकनी से,
जहां तराश कर छोटे कर दिए गए हैं स्पर्श
और आत्मा भर उन्मुक्त हवा दीवारों में चीन दी गई है,
आज इस रात के दुखते हुए प्रहर में
मैं ले रहा हूँ, छूटते हुए एक आँगन से
आख़िरी इजाज़त !
विदा, हमारे जीवन के बीते हुए नेह सा
हमारा वह आँगन, विदा !
सीवान-खेतों से रात-बेरात डरे-चिहुंके घर लौटने पर
अभय के अंकवार में सिमटा लेता
पिता की रामचंदन देह सा हमारा वह आँगन, विदा !
खेतकटी से बचा कर लाइ गई मसूर की पूलें
उमसती गंध-वातास से भरे रखतीं
जिस आँगन को मास-पखवारे
कमरे-कमरे घूमती-फिरती सीमती मसूर की वह बुसांस
झांपी, कठौत, कोथल, अलगनी,
पुवालों के डासन, खाट-बिछावन सबको
छू-छू जगाए रखती
आँगन के चूल्हे में उफनती रहती
मसूर की पुलों से झरते दानों की गंध-गाथा आए-रोज
अन्नपूर्णा सी माँ के आँचल से झरती
झारी भर गंध सा हमारा वह आँगन, विदा !
विदा वह आँगन कि खुली रहती थी जिसकी नर्म-रवेदार छाती
हमारे आयुष्य को अमृत देने के लिए,
और अमृत के संधान में ही जिसे छोड़ते हुए
शुरू हो गईं हमारी यात्राएँ
हमारी वह यात्रा
धुवों की इस कलौंसभरी बालकनी में आकर खत्म हो गई है,
और यहाँ से अब धुवों के खिलाफ एक नई जिहाद
शुरू होने को है !
४ अक्तूबर २०१०
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